थिएटर और सिनेमा की दुनिया में अगर दो कलाकारों के नाम एक साथ लिए जाएं जिनकी परफॉर्मेंस और सोच हमेशा लीक से हटकर रही है, तो उनमें परेश रावल और नसीरुद्दीन शाह का नाम जरूर आएगा। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि एक अनुभवी कलाकार परेश रावल ने खुद यह क्यों कहा कि “मैं नसीरुद्दीन शाह को डायरेक्ट नहीं करना चाहता था”?
इसका जवाब सिर्फ एक प्रोफेशनल निर्णय नहीं, बल्कि एक कलाकार की समझदारी, विनम्रता और सीखने की भूख में छुपा हुआ है।
शुरुआत होती है एक प्ले से – ‘स्लूथ’
बात उस समय की है जब परेश रावल एक प्ले करना चाहते थे जिसका नाम था ‘स्लूथ’। यह नाटक उन्होंने अमेरिका में 29 मार्च को प्रस्तुत किया था—संयोग से यही वो तारीख थी जब उनकी सुपरहिट फिल्म ‘हेराफेरी’ भी रिलीज़ हुई थी।
इस नाटक को शुरू में परेश रावल किसी और कलाकार के साथ करने जा रहे थे, लेकिन जब बात नहीं बनी, तो उन्होंने नसीरुद्दीन शाह से संपर्क किया और उन्हें इस प्ले का हिस्सा बनने को कहा। नसीरुद्दीन शाह ने सवाल किया, “डायरेक्ट कौन करेगा?” तो परेश रावल ने कहा, “मैं करूंगा।” पर यहीं से शुरू होती है असली कहानी।
“मुझे नहीं करना चाहिए था डायरेक्ट”: परेश रावल का खुलासा
नाटक की प्रक्रिया के दौरान परेश रावल को यह एहसास हुआ कि किसी भी कलाकार के विकास के लिए यह ज़रूरी है कि वह समय-समय पर खुद से बेहतर लोगों से सीखे। और यही कारण था कि उन्होंने कहा—“मुझे नसीर भाई को डायरेक्ट नहीं करना चाहिए था। बल्कि मुझे उनसे डायरेक्शन लेना चाहिए था।”
यह कोई सामान्य बयान नहीं था, बल्कि एक कलाकार की गहराई को दर्शाता है। एक ऐसा कलाकार जो दशकों से थिएटर और फिल्मों में काम कर रहा है, वो खुद को इस लायक नहीं मानता कि नसीरुद्दीन शाह जैसे कलाकार को निर्देशित करे। उन्होंने स्वीकार किया कि नसीर भाई से डायरेक्ट करवाकर वह और ज़्यादा सीख सकते थे।
नाटक के अनुभव और सीख
परेश रावल ने बताया कि यह नाटक तकनीकी रूप से भी काफी चुनौतीपूर्ण था। इसमें तलवारें, छुरियां, और यहां तक कि लाइव फायरिंग का भी इस्तेमाल था। यह उस दौर की बात है जब 1991 से पहले अमेरिका में इस तरह के सीन को अनुमति थी, लेकिन उसके बाद ऐसे प्रयोगों पर पाबंदियां लग गई थीं।
इसके साथ-साथ नाटक में अभिनय की चुनौती भी थी। उन्होंने खुद वह किरदार निभाया जिसे बाद में सुमित व्यास ने निभाया—एक ऐसा किरदार जो अंत में पूरी तरह से अपना हुलिया, आवाज़ और अंदाज़ बदल देता है। परेश रावल ने बताया कि उन्हें इस भूमिका के लिए काफी पसीना बहाना पड़ा, क्योंकि यह बदलाव आसान नहीं था, खासकर तब जब आप पहले ही कई फिल्में और भूमिकाएं निभा चुके हों।
थिएटर में ऑडियो क्लोज़-अप का महत्व
एक और दिलचस्प बात जो परेश रावल ने साझा की वह थी “ऑडियो क्लोज़-अप” की ताकत। थिएटर में कैमरे जैसा क्लोज़-अप नहीं होता, इसलिए केवल आवाज़ के माध्यम से ही भावनाएं दर्शक तक पहुंचाई जा सकती हैं। उन्होंने समझाया कि कैसे सही टोन, सही इंटोनशन, और माइक के उपयोग से दर्शकों को वही गहराई महसूस होती है जो फिल्म के क्लोज़-अप में होती है।
यह उदाहरण इस बात को और स्पष्ट करता है कि परेश रावल ने निर्देशन नसीरुद्दीन शाह को क्यों देना बेहतर समझा—क्योंकि वह जानते थे कि ऐसे कलाकार से वह सिर्फ अभिनय नहीं, बल्कि तकनीक और भावनाओं की बारीकियां भी सीख सकते हैं।
एक कलाकार की ईमानदारी
यह कहना कि “मैं किसी को डायरेक्ट नहीं कर सकता” एक कमजोर पहलू नहीं, बल्कि एक सच्चे कलाकार की ताकत होती है। परेश रावल ने यह दर्शाया कि सीखने की कोई उम्र नहीं होती और न ही कोई स्थिति। जब एक अनुभवी कलाकार यह कहता है कि “मैंने किसी को डायरेक्ट करने से ज़्यादा, उससे सीखना बेहतर समझा”, तो वह अभिनय की दुनिया में एक मिसाल बन जाता है।
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यह कहानी वाकई प्रेरणादायक है। परेश रावल की विनम्रता और सीखने की ललक सचमुच सराहनीय है। नसीरुद्दीन शाह जैसे कलाकार के साथ काम करने का मौका किसी भी कलाकार के लिए एक सपना होता है। यह दिखाता है कि कैसे एक कलाकार अपने अहं को पीछे रखकर सीखने के लिए तैयार रहता है। तकनीकी चुनौतियों और अभिनय की बारीकियों को समझने का उनका तरीका भी काफी प्रभावशाली है। “ऑडियो क्लोज़-अप” के बारे में उनकी समझ ने थिएटर के प्रति मेरा नजरिया बदल दिया। क्या आपको नहीं लगता कि आज के समय में ऐसी विनम्रता और सीखने की भूख दुर्लभ होती जा रही है?